Tuesday, 21 April 2020

इसे कैद कहूं, या मर्ज़ का वैध


एक मुद्दत से आरज़ू थी फुरसत की,
मिला तो इस शर्त पे की किसी से ना मिलो ।
शहर का यूं वीरान होना कुछ यूं गज़ब कर गया
बरसो से परे गुमसुम घरों को आबाद कर गया ।

ये कैसा समय आया है कि ,
दूरी ही दवा बन गई है ।
ज़िंदगी में पहली बार ऐसा वक़्त आया है
इंसान ने ज़िन्दा रहने के लिए कमाना छोड़ दिया ।

घर गुलज़ार, सुने शेहर
बस्ती-बस्ती में कैद हर हस्ती हो गई है ,
आज फिर ज़िंदगी मेंहगी,
और दौलत सस्ती हो गई है ।

~Sareen Yasmin

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